Tuesday 14 December 2010

वामपंथी हिंसा, हिंसा न भवति।।

ये एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि जो विचार मानव समाज के अनुकूल नहीं होंगे वो स्वतः ही ख़त्म हो जायेंगे। वामपंथ ऐसी ही एक फांसीवादी विचारधारा है, जो जहाँ भी उभरी भारी जन-धन की तबाही लेकर आयी लेकिन जल्द ही लोगों को इस असफल विचारधारा का भान हो गया और अब ये खात्मे की और है। फ़िलहाल ये दुनिया के मात्र ६ देशों(चीन, बेलारूस,उत्तर कोरिया, क्यूबा, लाओस, वियतनाम) में ही सिमट कर रह गयी है। लगभग २० के आस पास देशों(अल्बानिया, मंगोलिया, पोलैंड, बुल्गारिया, कम्बोडिया, कांगो, हंगरी, रोमानिया, सोमालिया, युगोस्लाविया, पूर्वी जर्मनी, बेनिन अफगानिस्तान, दक्षिण यमन,सेज़ोस्लोवाकिया, मोजाम्बिक, एथिओपिआ, अंगोला और सोवियत संघ) ने इस फांसीवादी विचारधारा को अलविदा कह दिया है। चीन में भी अब वामपंथ खात्मे की ओर है और उसमे भी पूंजीवाद(साम्यवादी पूंजीवाद) ने अपनी जगह बना ली है। चीन के वामपंथियों ने वामपंथ के उन्हीं सिद्धांतों को अपना रक्खा है, जिससे उनकी सत्ता बरक़रार रहें और ये इस बात का भी उदाहरण है कि धुर साम्यवादी विचार किसी का भी भला नहीं कर सकते। हिटलर को तानाशाह और फांसीवादी कहने वाले खुद के गिरेबान में झांकना भूल जाते है स्टालिन, सोवियत संघ (८ मिलियन से लेकर ६१ मिलियन), माओत्से तुंग, चीन(४० मिलियन से ७० मिलियन), कम्पूचिया की साम्यवादी पार्टी, कम्बोडिया(१.२ मिलियन से लेकर २.२ मिलियन) लोगो की हत्या अपने शासन काल में इन महानुभावों और इनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने किये। अगर वामपंथियों को ये आकड़े कम लगते हो तो ठीक लेकिन अगर कोई शंका हो तो यहाँ चटका लगाये।
http://en.wikipedia.org/wiki/Mass_killings_under_Communist_regimes
http://en.wikipedia.org/wiki/Stalin
http://en.wikipedia.org/wiki/Mao
http://en.wikipedia.org/wiki/Khmer_Rouge
लेकिन इनका एक महान सिद्धांत “वामपंथी हिंसा, हिंसा न भवति।।” इनके सारे पापों को ढक लेता है। ये तो कुछ उदाहरण है जेएनयू में प्रवेश लेने वाले जिन बच्चों के भोलेपन का ये फायदा उठाते हुए उन्हें वामपंथी चश्मा पहना देते है, वो अगर इनकी सच्चाई जान ले तो ये वामपंथी उन्हें क्या नास्तिक बनायेंगे उनका स्वतः ईश्वर पर से विश्वास उठ जायेगा।
वामपंथ के जिस स्वघोषित स्वर्णिम इतिहास को वामपंथी अपने दिल में बसाये रखना चाहते है, उसे दुनिया के सभी लोग काला इतिहास मानते है। पूरी बींसवी सदी इनके खून-खराबे से रक्त रंजित रहीं और ये नारे लगाते रहे की वामपंथ एक महान विचार है और इससे पूरी दुनिया के सभी लोगो में आर्थिक समानता आ जाएगी। इनके इस झूठे प्रचार में दुनिया के कई देश और उसके बुद्धिजीवी आ गए और जब तक उन्हें ये पता चला की ये विचारधारा न केवल अनुत्पादक है बल्कि उनके देश की समृद्धि के लिए घातक भी है, तब तक देर हो चुकी थी लाखों लोग इसकी हिंसा के शिकार हो चुके थे जैसे कई बार ऐसा होता है कि व्यापारी अपने लाभ के लिए किसानों को फसलों के बीज ये कह कर बेच देता है कि फलां बीज बहुत ही उत्पादक है। ये सीधे विदेश से आयात किया गया है और इसका इस्तेमाल करते ही उसकी दरिद्रता दूर हो जाएगी और इसके लिए वो प्रचार साधनों का इस्तेमाल करता है और कुछ देशी-विदेशी क्षद्म विद्वानों का सहारा उन्हें कुछ पैसा देकर और कुछ विदेशी पुरस्कारों की व्यवस्था कर ले लेता है। और किसानों को जब तक सच्चाई पता चलती है तब तक देर हो चुकी होती है। वामपंथी विचार किसी खेंत में उग रहें खर-पतवार की तरह होते है, जो न केवल अनुत्पादक होते है बल्कि खेत में उगने वाली अन्य फसल को भी चौपट कर देते है। एक अनपढ़ किसान भी इस बात को समझता है और अपनी फसल को बचाने के लिए इन खर-पतवारों को जड़ से उखाड़ने में लग जाता है। इसलिए दुनिया के हर देश से इनको उखाड़ा जा रहा है। भारत में भी कुछ खर-पतवार बची रह गयी है, जरूरत इस बात की है की देश के किसान(राष्ट्रवादी) अपने कार्य में बिना थके बिना रुके लगे रहें नहीं तो इस खर-पतवार को फिर भयानक रूप लेने में समय नहीं लगेगा।
सभी राष्ट्रवादियों को सचेत हो जाना चाहिए कि इस खर-पतवार की कोई दवा नहीं इसलिए समय और धन दोनों का इस्तेमाल इसको जड़ से उखाड़ने में करें न कि इसका इलाज़ करने में क्योंकि देश कि कुछ राष्ट्रविरोधी शक्तियों ने इन्हें दवा देकर अपने अनुसार नियंत्रित करने कि कोशिश कि लेकिन ये खर-पतवार एक नए घातक रूप(माओवाद) रूप में हमारे सामने आ गयी है। इनको नियंत्रित करना है तो इनको समूल नाश करना ही एक विकल्प है।
ये विचार न केवल मानव के बल्कि प्रकृति के सामान्य सिद्धांतों के भी विपरीत है, जब एक खेत में बहुत सारें फलों, सब्जिओं और अनाजों कि खेती होती है तो क्या सभी फसलों को एक बराबर जल, वायु, मृदा और सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है और क्या वो एक बराबर उत्पादन भी करते है और क्या उनके उत्पाद के सभी गुणों में भी समानता होती है, अगर नहीं तो मानवीय विचारों की फसल के ऊपर इन सिद्धांतों को कैसे लागू किया जा सकता है। १ किलो चावल पैदा करने के लिए लगभग २५०० लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जबकि १ किलो आलो के लिए मात्र १३३ लीटर की, जबकि दोनों उत्पादों में बहुत सी समानताएं है तो क्या चावल जितना पानी आलू में भी डाल दे या चावल से भी आलू के समानुपातिक उत्पाद की उम्मीद करें। सभी फसलों को जल, वायु, मृदा और सूर्य का प्रकाश मिलता है, लेकिन नारियल, सरसों, मूंगफली और सूरजमुखी के पेड़-पौधे उसी में से अलग अलग तरह के तेलों का उत्पादन करती है तो आवंला तेल के साथ बहुमूल्य लवणों का। हमें पीपल और बरगद के विशाल वृक्षों की भी आवश्यकता है और प्याज, लहसुन, धनियाँ और पुदीने की भी। कुछ वामपंथी ये दावा करते है कि वामपंथ विचारों की विविधताओं से भरा हुआ है, लेकिन उन्हें ये समझना होगा की चावल की कितनी भी किस्में क्यों न पैदा हो जाएँ उससे मनुष्य की कुछ आवश्यकता तो पूरी हो सकती है, लेकिन सारी शारीरिक आवश्यकताए नहीं पूरी की जा सकती। वैसे ही वामपंथ के विचार मानव की कुछ बौद्धिक आवश्यकताओं को ही पूरा कर सकते है(हालाँकि इसमें भी मुझे संदेह है)। एक मानव और एक भारतीय होने के नाते भी मेरा ये मानना है कि भारत में भी वो दिन दूर नहीं जब सभी को अपने आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए सामान अवसर मिलेंगे सौभाग्य से इतने भौतिक पतन के पश्चात आज भी भारत कि बगियाँ में सभी विचारों को सामान अवसर मिलते हैं। जगत में कोई भी मानवीय सिद्धांत प्रकृति के सिद्धांतों के उपर नहीं है चाहे वो दुनिया के किसी भी सर्वमान्य महापुरुष द्वारा ही क्यों न उत्पादित किया गया हो तो मार्क्स-लेनिन क्या चीज़ है। प्रकृति का सिद्धांत कहता है कि सभी को समान अवसर मिलने चाहिए न की मार-काट के सभी को एक समान बनाया जाये।

1 comment:

Anonymous said...

अच्छा लेख